कोढ़ में खाज वाली कहावत इस समय पाकिस्तान पर सटीक बैठ रही है। पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के बीच आई विनाशकारी बाढ़ ने उसकी हालत और पतली कर दी है। अपनी मदद के लिए वह दूसरों के भरोसे बैठा है। इसके बावजूद कश्मीर में जिहाद को लेकर उसका और उसके जैसों का रवैया जस का तस बना हुआ है। सीमा पार से आतंकियों की खेप आती जा रही है। बीते दिनों रूसी फेडरल सिक्योरिटी एजेंसी ने एक ऐसे आतंकी को पकड़ा, जो भारत आकर आत्मघाती हमला करने के इरादे से लैस था। तुर्किए में प्रशिक्षित इस आतंकी को भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाने का निर्देश था।
इस काम में उसे स्थानीय स्तर पर किसी की मदद मिलती। जाहिर है कि यह मदद किसी आइएस समर्थक आतंकी से ही मिलती। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश के भीतर भी सांप्रदायिक विभाजनकारी शक्तियां, सत्तालोलुप नेता हर दांवपेच चल रहे हैं। संकटकाल लगातार चल रहा है। प्रछन्न राष्ट्रविरोधी, जिहादी, नक्सली, क्षेत्रीय अलगाववादी और विदेशों से वित्त पोषित एनजीओ संगठित होने का आभास दे रहे हैं। इन समस्त देसी-विदेशी शक्तियों के हित खंडित-विभाजित भारत में निहित हैं।
आखिर भारतीय शीर्ष नेतृत्व क्यों पाकिस्तानी जिहादियों से लेकर तुर्किए और आइएस के आतंकी समूहों से लेकर तमाम घरेलू धड़ों की आंखों में खटक रहा है? वे भारत के वर्तमान नेतृत्व से इतनी घृणा क्यों करते हैं? इसलिए करते हैं कि पहले अरब और वेटिकन पक्षधरों से भारत में अबाध धन आता रहा। इसके जरिये मतांतरण के प्रछन्न अभियान चलते रहे। अभी भी चल रहे हैं। अब जब इन अभियानों पर रोक लगाने की कोशिश हो रही है तो भारत को कमजोर करने वाली ताकतों को परेशानी हो रही है। इसके पहले इन ताकतों ने देखा था कि सत्ताधिकार परिवारों और सत्ता समूहों में बंट जाता है। राष्ट्रीय चरित्र परिवर्तन उनका लक्ष्य नहीं होता। चूंकि इधर जो बदलाव हो रहे हैं, वे सोते हुए लोगों में जागृति ला रहे हैं इसलिए भारत विरोधी ताकतों के लक्ष्य बिगड़ रहे हैं। राष्ट्रीयता का यह जागरण राष्ट्रविरोधियों का सबसे बड़ा संकट है। इसी वजह से मोदी-विरोध शत्रुता की सीमाएं तोड़ रहा है। एक बड़ा समूह सत्ता के हाशिये पर जा रहा है। हताशा में वह कुछ भी कर गुजरेगा।
वैश्विक इस्लामिक परिदृश्य की बात करें तो तुर्किए से लेकर पाकिस्तान और मध्य एशिया के नवस्वतंत्र देशों तक एक इस्लामिक आर्क बनती है। यह भारत-म्यांमार के आगे मलेशिया-इंडोनेशिया तक जाती है। भारत सदियों से इसकी पूर्णता में सबसे बड़ी बाधा रहा है। इसी कारण भारत 712 ई. से ही मजहबी आक्रांताओं का निरंतर निशाना बना। भारत के इस्लामीकरण में आखिर तुर्किये जैसे देशों की रुचि क्यों होनी चाहिए? अंग्रेज भी मिशनरियों को लेकर हमें-सभ्य-बनाने आ गए। आजादी के दौर में तुष्टीकरण के प्रयोग हमने देखे। देश विभाजन के बाद भी तुष्टीकरण को समर्पित हमारे नेताओं ने गंगा-जमुनी संभावनाएं कायम रखीं, लेकिन अब राष्ट्रवाद का जो उभार हो रहा है, उससे पार पाना विरोधियों के लिए मुश्किल हो रहा है।
वैश्विक इस्लाम की एक तिहाई आबादी भारतीय उपमहाद्वीप में बसी है। उनकी जड़ें भी मूलतः भारतीय संस्कृति में हैं। भारत के एक बड़ी आर्थिक और सैन्यशक्ति के रूप में उभरने से परमाणु बम के बावजूद पाकिस्तान एक मजबूर किस्म का देश बनता जा रहा है। वह अपने आंतरिक विरोधाभास के कारण भारत पर निर्भर चार भागों में विभाजित हो सकता है। यानी सशक्त भारत के फलस्वरूप एक मजहबी साम्राज्य बिखरने को है। इसीलिए भारतीय मुस्लिम समाज को मुख्यधारा से भटकाने के लिए वैश्विक और आंतरिक मजहबी शक्तियां जी-जान से जुटी हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो टीवी चैनलों पर हो रही तमाम बहसों में कोई एक मामूली सी बात अंतरराष्ट्रीय मुद्दा कैसे बन गई? इसलिए बन गई, क्योंकि वैश्विक मजहबी ताकतों को भारत में अपने मजहबी अभियानों में बाधा पच नहीं रही।
उनकी समस्या यह भी है कि मोदी का भारत अपने चरित्र में अल्पसंख्यक समाज के प्रति दुराग्रहमुक्त है। मजहबी ताकतें चाहे वे तुर्किये हों या आंतरिक वामी-सांप्रदायिक गठजोड़, भारत को इस अतिसंवेदनशील काल में खलनायक नहीं बना पा रही हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व को अहसास है कि कोई भी प्रायोजित सांप्रदायिक समस्या देश को भीषण आर्थिक संकट के दायरे में धकेल देगी। दूरगामी लक्ष्यों के दृष्टिगत मोदी सरकार तमाम आलोचनाओं को झेलते हुए भी धैर्य धारण कर अपने लक्ष्य से डिग नहीं रही है। अब भारत के शत्रुओं और उनके पिट्ठुओं के पास क्या विकल्प हैं? इसकी एक बानगी रूसी एजेंसी के सामने आतंकी के कुबूलनामे से सामने आई है।