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Thursday, 24 October 2024

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2 अक्टूबर : खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते है,बापू के जन्मदिन पर उनके वचन

02 October 2022 12:01 PM Mega Daily News
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2 अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 154वीं जयंती है। इस दिन हम उन्हें बहुत तरीको से याद करेंगे। बहुत से ऐसे लोग भी पैदा हो गए हैं जो इस दिन उनके हत्यारे को याद करते हैं। सोशल मीडिया पर प्राय: इस तरह के हैशटैग में युद्ध चलता है जिसमें एक तरफ गांधीजी के समर्थक होते हैं तो दूसरी तरफ उनके हत्यारे के समर्थक। यह आजकल का न्यू नॉर्मल है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सार्वजनिक मंच से गांधीजी की प्रशंसा करते हैं और पीठ पीछे उनकी निंदा को बढ़ावा देते हैं।

2 अक्टूबर 1947 को प्रार्थना प्रवचन में बापू ने कहा, ‘आज तो मेरी जन्म तिथि है। मैं तो कोई अपनी जन्म तिथि इस तरह से मनाता नहीं हूं। मैं तो कहता हूं कि फाका करो, चरखा चलाओ, ईश्वर का भजन करो, यही जन्म तिथि मनाने का मेरे खयाल में सच्चा तरीका है। मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिंदा पड़ा हूं। इस पर मुझको खुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है, मैं वही शख्स हूं कि जिसकी जबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे। पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है।

मैं कहूं कि तुम ऐसा करो ‘नहीं, ऐसा नहीं करेंगे’ ऐसा कहते हैं। ‘हम तो बस हिन्दुस्तान में हिंदू ही रहने देंगे और बाकी किसी को पीछे रहने की जरूरत नहीं है।’ आज तो ठीक है कि मुसलमानों को मार डालेंगे, कल पीछे क्या करोगे? पारसी का क्या होगा और क्रिस्टी (ईसाई) का क्या होगा और पीछे कहो अंग्रेजों का क्या होगा? क्योंकि वह भी तो क्रिस्टी हैं? आखिर वह भी क्राइस्ट को मानते हैं, वह हिन्दू थोड़े हैं? आज तो हमारे पास ऐसे मुसलमान पड़े हैं जो हमारे ही हैं, आज उनको भी मारने के लिए हम तैयार हो जाते हैं तो मैं यह कहूंगा कि मैं तो ऐसे बना नहीं हूं।

लेकिन, इन सब बातों से परे जरा इस बात पर ध्यान दें कि जिस आजादी की हीरक जयंती इस साल हम मना रहे हैं, वह आजादी जब 1947 में आई थी तो गांधी ने 2 अक्टूबर 1947 के अपने जन्मदिन( 2 October Gandhi ji Birthday) पर क्या कहा था? क्या वे करीब तीन दशक की अपनी मेहनत के बाद आई आजादी से संतुष्ट थे, क्या वे देश के हालात से संतुष्ट थे, अगर नहीं थे, तो कौन सी बात उन्हें परेशान कर रही थी। और जो बात उन्हें परेशान कर रही थी क्या वह आज भी हिंदुस्तान के संवेदनशील नागरिकों को परेशान नहीं कर रही है?

मैंने तो वही पेशा किया कि जिससे हिन्दू, मुसलमान सब एक बन जायें। धर्म से एक नहीं, लेकिन सब मिलकर भाई-भाई होकर रहने लगें। लेकिन आज तो हम एक-दूसरे को दुश्मन की नजर से देखते हैं। कोई मुसलमान कैसा भी शरीफ हो तो हम ऐसा समझते हैं कि कोई मुसलमान शरीफ हो ही नहीं सकता। वह तो हमेशा नालायक ही रहता है। ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहां है और मैं उसमें जिन्दा रहकर क्या करूंगा? आज मेरे से 125 वर्ष की बात छूट गई है। 100 वर्ष की भी छूट गई है और 90 वर्ष की भी। आज मैं 79 वर्ष में तो पहुंच जाता हूँ, लेकिन वह भी मुझको चुभता है। मैं तो आप लोगों को, जो मुझको समझते हैं, और मुझको समझने वाले काफी पड़े हैं, कहूंगा कि हम यह हैवानियत छोड़ दें। मुझे इसकी परवाह नहीं कि पाकिस्तान में मुसलमान क्या करते हैं।

मुसलमान वहां हिन्दुओं को मार डालें, उससे वे बड़े होते हैं, ऐसा नहीं, वह तो जाहिल हो जाते हैं, हैवान हो जाते हैं तो क्या मैं उसका मुकाबला करूं, हैवान बन जाऊं, पशु बन जाऊं, जड़ बन जाऊं? मैं तो ऐसा करने से साफ इन्कार करूंगा और मैं आपसे भी कहूंगा कि आप भी इन्कार करें। अगर आप सचमुच मेरी जन्म-तिथि को मानने वाले हैं तो आपका तो धर्म यह हो जाता है कि अब से हम किसी को दीवाना बनने नहीं देंगे, हमारे दिल में अगर कोई गुस्सा हो तो हम उसको निकाल देंगे। मैं तो लोगों से कहूंगा भाई, आप कानून को अपने हाथ में न लें, हुकूमत को इसका फैसला करने दें। इतनी चीज आप याद रख सकें तो मैं समझूंगा कि आपने काम ठीक किया है। बस इतना ही मैं आपसे कहना चाहता हूं।’

आजाद भारत में राष्ट्रपिता अपने पहले जन्मदिन पर हिंदुस्तान को कौमी एकता का सबक दे रहे थे। वे समझा रहे थे कि दंगे बंद करो और हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत खत्म करो।

गांधी जी रोज प्रार्थना सभा के भाषणों में समझाते थे। दिन में वे किसी न किसी निराश्रित शिविर का दौरा करते थे। पाकिस्तान से आए हिंदुओं के शिविर में भी जाते थे और अपने घर से बेदखल कर दिए गए दिल्ली और आसपास के मुसलमानों के शिविर में भी जाते थे। दोनों ही जगह उन्हें कुछ न कुछ कटु बातें सुननी पड़ती थीं। किंग्जवे कैंप में सिंध से आए हिंदू शरणार्थी अपने परिजनों की हत्या से दुखी थे। उन्होंने ‘गांधी मुर्दाबाद’ के नारे लगाए। बापू ने बमुश्किल उन्हें शांत कराया और कहा कि शरणार्थी पुरुषार्थ से काम लें, रोने-धोने या क्रोध करने से मरे हुए परिजन तो वापस आ नहीं जाएंगे, उलटे उनकी शक्ति ही घिसेगी।]

जामा मस्जिद में कहा कि बिना हथियार डाले मुसलमान हिंदुओं की श्रद्धा नहीं पा सकेंगे। इसी दौरान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से आए कुछ छात्रों ने बापू से निवेदन किया कि वे हिंदू शरणार्थियों की सेवा करना चाहते हैं। गांधी जी ने उन्हें समझाया कि यहां की सेवा दिखावटी होगी, असली सेवा तो तब होगी जब आप लोग पाकिस्तान जाकर वहां के हिंदुओं का कत्लेआम रुकवाएं। एक अन्य शरणार्थी शिविर में जब एक सिख ने अपनी बहू-बेटियों पर हुए नृशंस अत्याचारों की व्यथा सुनाई तो गांधी ने कहा कि तुम्हारी मर्दानगी पर धिक्कार है, तुम्हें तो अपनी स्त्रियों को बचाते हुए मर जाना चाहि

बापू के इन प्रयासों के बीच प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और अन्य मंत्री उनसे मिलने आते रहते थे। उनसे मंत्रणा करते थे। लेकिन इन सब चीजों से न तो गांधी जी की और न ही देश की यंत्रणा कम होती थी। गांधी जी बेचैनी की भंवर में डूबते जाते थे।

20 अक्टूबर 1947 के प्रार्थना प्रवचन में गांधी जी ने कहा,
‘राजकुमारी (अमृत कौर) ने प्रार्थना के बाद कल खबर दी कि एक मुस्लिम भाई, जो हेल्थ ऑफिसर थे, वह जब काम पर थे, उनको कत्ल किया गया। वे कहती हैं कि वह अफसर अच्छे थे, अपना फर्ज बराबर अदा करते थे। उनके पीछे विधवा है और बच्चे हैं। विधवा का क्रन्दन यह है कि खूनी के हाथ से उनका और उनके बच्चों का भी खून हो। उनका शौहर सब कुछ था, रोटी वही पैदा करते थे। अब जीने में क्या रखा है?’

‘मैंने कल ही आपको कहा था कि जैसे देखने में आता है, ऐसे दिल्ली सचमुच शांत नहीं हुई है। जब तक इस तरह के दुखद किस्से बनते हैं हम देहली की ऊपर-ऊपर की शांति पर खुशी नहीं मना सकते। यह तो कबर (कब्र) की शांति है। जब लॉर्ड इर्विन, जो अब लॉर्ड हैलिफैक्स हैं, देहली के वायसराय थे, तब उन्होंने ऊपर-ऊपर के हिंदुस्तान की शांति को कबर की शांति कहा था। राजकुमारी ने मुझे यह भी बताया कि कुरान शरीफ के मुताबिक शव को दफन करने के लिए काफी मुसलमान मित्र इकट्ठे करना भी कठिन हो गया था। इस किस्से को सुनकर मेरी तरह हर एक रहम दिल स्त्री-पुरुष कांप उठेंगे। देहली की यह हालत! बहुमत के लिए अल्पमत से डरना, चाहे वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो, बुजदिली है।’

की आजादी के बाद से अपनी मृत्यु तक महात्मा गांधी का सारा संघर्ष सांप्रदायिक हिंसा को रोकने का महान अहिंसक संघर्ष था। ये एक ऐसा युद्ध था, जिसमें वे अपने नैतिक बल से लड़ रहे थे। आज उनके 153वें जन्मदिन पर भी इस बात को समझने की जरूरत है कि सांप्रदायिक उन्माद बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों वर्गों के लिए सिर्फ बर्बादी लाता है और कुछ नहीं। परपीड़ा से उन्माद तो फैल सकता है लेकिन सुख सकता।

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