शाहरुख खान को अपनी जेब से ज्यादा प्यार करने वाले फैन्स का सहारा है. यशराज और धर्मा जैसे प्रोडक्शन हाउस उनके लिए तिजोरी खोल देते हैं. खुद शाहरुख के पास पैसों की कमी नहीं है. वे चाहे जितने शो और क्लब स्पॉन्सर कर सकते हैं. इन तमाम बातों के बीच अगर उनकी पठान जैसी फिल्म सफल कहलाती है, तो यह बॉलीवुड के लिए ‘सही आदर्श’ नहीं है. हर लिहाज से कमजोर पठान को तो डूबने से बचाने वाले हैं, लेकिन ऐसी ही फिल्म किसी और एक्टर के साथ बने, कोई और प्रोड्यूसर-डायरेक्टर बनाए तो दूसरे ही दिन वह थियेटरों से साफ हो जाए. पठान के लिए थियेटरों में रचा गया ताम-झाम देख कर बाकियों को लगेगा कि दर्शक यही देखना चाहते हैं और वह भी ऐसी फिल्में बनाएंगे. नतीजा यह कि वे डूब जाएंगे. बॉलीवुड जिस संकट से गुजर रहा है, उसके लिए अच्छी कहानियों और नई रचनात्मकता की जरूरत है. न कि पठान जैसी प्रायोजित सफलता की.
नई कोशिश, नई इमेज
पठान पूरी तरह से शाहरुख खान का सिनेमा है. यह बुझते दीये की चमक जैसा मामला है. 57 साल की उम्र में जब वह अपना आभा मंडल खो चुके हैं, तो बढ़ी-खिचड़ी दाढ़ी, बिखरे लंबे बालों और रेड-ऑरेंज-यलो कलर टोन से खुद को छुपते-छुपाते दिखाने की कोशिश करते हैं. तेज रफ्तार से गढ़े गए एक्शन दृश्यों में वीएफएक्स की बाजीगरी और तेज बैकग्राउंड म्यूजिक के बीच उनकी एक्टिंग का पता नहीं चलता. ट्रेलर में दिखे इक्का-दुक्का डायलॉग के अलावा उनके मुंह से फिल्म में ऐसा कुछ नहीं निकलता, जिससे सुनने वाले का दिल उछल जाए. पठान देखते हुए साफ है कि यह फिल्म दस साल पहले चेन्नई एक्सप्रेस के बाद कोई लुभावनी फिल्म नहीं दे पाए शाहरुख खान को नए सिरे से, नई इमेज में ढालने की कोशिश है. हो सकता है कि इससे शाहरुख खान के करियर की उम्र कुछ बढ़ जाए, लेकिन असली मुद्दा है क्या ऐसी फिल्मों से बॉलीवुड बचेगा.
अनाथ पठान और रुबीना खान
फिल्म की कहानी पठान (शाहरुख खान) की है. यह पर्दे पर धीरे-धीरे कुछ इस तरह साफ होती है कि पठान खुफिया एजेंट है. वह पहले आर्मी में था. जब वह अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के साथ मिलकर काम कर रहा था, वहीं उसे पठान नाम मिला, वर्ना उसे भी नहीं पता कि वह कौन है. वह खुद को अनाथ बताता है. उसे एक मिशन में मरा समझ लिया गया था. परंतु वह जिंदा लौटकर ऐसे लोगों का संगठन (जोकर) बनाता है, जो घायल होने के बाद आर्मी से रिटायर किए जा चुके हैं. जिन्हें काम का नहीं समझा जाता. डिंपल कपाड़िया रॉ से रिटायर हुई हैं. पठान उन्हें जोकर की बागडोर सौंपता है. इसी दौरान पता चलता है कि प्राइवेट आतंकी संगठन, आउटफिट एक्स को भारत में तबाही मचाने के लिए पाकिस्तानी सेना के बड़े अफसर ने सुपारी दी है. आउटफिट एक्स का सर्वे सर्वा जिम (जॉन अब्राहम) है. वह भारत का खुफिया एजेंट था, परंतु एक बार दुश्मनों द्वारा पकड़े जाने पर एजेंसी ने उसकी रिहाई के लिए आतंकियों को पैसे नहीं दिए. आतंकियों ने जिम के सामने उसकी गर्भवती पत्नी को मार दिया. अब जिम भारत के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए है. जबकि भारत सरकार उसे मृत घोषित करके वीर पुरस्कार दे चुकी है. दीपिका पादुकोण पाकिस्तानी एजेंट हैं, डॉक्टर रुबीना खान. वह जिम के लिए काम करती है. जिम के इशारे पर वह पठान के साथ मिलकर रूस से एक वायरस चोरी करती है. इस वायरस के म्यूटेंट से दिल्ली पर घातक हमला होने वाला है. तब रुबीना का दिल बदल जाता है और अब वह पठान के साथ मिलकर जिम के इरादों को नाकाम करने में लग जाती है.
एक्शन का जमीन-आसमान
भारत के विरुद्ध आतंकी कुचक्र और हीरो की जांबाजी की तमाम कहानियां बॉलीवुड के पर्दे पर आ चुकी हैं. इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है. हां, पठान यह जरूर बताती है कि पाकिस्तान आतंकियों को स्पॉन्सर नहीं करता. उसके यहां बस कुछ लोग शैतान हैं. यशराज फिल्म्स ने पिछली कुछ फिल्मों में भी यही मैसेज दिया है. पठान में सलमान खान का कैमियो रोल है. वे दस मिनट से ज्यादा शाहरुख खान के संग मिलकर रूसियों से लड़ते हैं. मुश्किल में फंसे शाहरुख को सलामत निकालते हैं. पठान जैसी फिल्में अच्छी कहानियों से ज्यादा नकली स्टारडम में भरोसा करने को कहती हैं. ऐसे में अगर आप शाहरुख, दीपिका, सलमान के फैन हैं और आपको एंटरटेन होने के लिए बे-सिर-पैर के एक्शन दृश्यों के सिवा कुछ नहीं चाहिए तो जरूर पठान को देख सकते हैं. फिल्म में लंबे एक्शन सीन, लंबे चेज सीन हैं. शाहरुख के शुरुआती एक्शन सीन रोचक हैं, लेकिन इसके बाद में सब पुराने ढर्रे पर आ जाता है. बरसती गोलियां, फूटते बम. शाहरुख-जॉन कई दृश्यों में आमने-सामने आकर कई-कई मिनट तक लड़ते रहते हैं. बस की छत पर, ट्रक की छत पर, कारों की टक्कर में, हवा में लटक कर, जमीन पर भागते-दौड़ते. बाइक पर फर्राटा लगाते हुए. एक्शन के मामले में फिल्म में जमीन-आसमान एक कर दिया गया है. परंतु यह सब कुछ ऐसे चलता है, मानो लेखक-निर्देशक ने इसके अलावा कुछ और सोचा ही नहीं.
मुफ्त मिली पब्लिसिटी
शाहरुख ने सारा काम ऐसे किया है कि बस उन्हें अपना करियर बचाना है. दीपिका पादुकोण जिस्म की नुमाइश करती हैं, मगर फिल्म में असर नहीं पैदा करतीं. न उनके रोल में कोई बात है और न उनके हिस्से ढंग के संवाद हैं. जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, दीपिका कमजोर पड़ती हुई हाशिये पर चली जाती हैं. अंततः गायब हो जाती हैं. जॉन अब्राहम फिल्म में सबसे प्रभावी हैं. उनका खलनायकी वाला अंदाज अच्छा है, लेकिन बेहतर होता कि लिखने वालों ने उनके किरदार को भारत विरोधी दिखाने से ज्यादा तार्किक दिखाया होता. जॉन के किरदार से आपको न नफरत होती है और न ही परिवार खोने को लेकर उनके प्रति कोई सहानुभूति जाग पाती है. फिल्म में डायरेक्टर से ज्यादा एक्शन-डायरेक्टर ने मेहनत की. गाने दो ही हैं, जो आप सुन चुके हैं. भगवा रंग की बिकनी पर काफी हंगामा हो चुका है. बिकनी गाने में तो है ही, गाने के बाद उसी बिकनी में एक लंबा एक्शन सीक्वेंस भी है. मतलब यह कि विरोध का कोई अर्थ ही नहीं रह गया. सारे हंगामे से फिल्म की मुफ्त पब्लिसिटी हुई. जबकि फिल्म ऐसी नहीं है कि देखेंगे तो कुछ पाएंगे और नहीं देखेंगे तो कुछ खोएंगे.
निर्देशकः सिद्धार्थ आनंद
सितारेः शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, जॉन अब्राहम, डिंपल कपाड़िया, आशुतोष राणा
रेटिंग **1/2