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Uttar Pradesh / रावण के साथ कुंभकर्ण-मेघनाद का पुतला जलाने की 300 साल पुरानी परंपरा बंद हुई, ये इसकी असली वजह

रावण के साथ कुंभकर्ण-मेघनाद का पुतला जलाने की 300 साल पुरानी परंपरा बंद हुई, ये इसकी असली वजह
Mega Daily News October 02, 2022 08:19 PM IST

उत्तर प्रदेश (UP) में 300 से ज्यादा साल के बाद ऐशबाग (Aishbagh) रामलीला समिति ने इस दशहरे (Dussehra) पर रावण (Ravan) के साथ कुंभकरण (Kumbhkaran) और मेघनाद (Meghnad) के पुतले जलाने की प्रथा को बंद करने का फैसला किया है. आयोजकों ने कहा कि इसका कारण यह है कि सभी रामायण ग्रंथों में उल्लेख है कि कुंभकरण और मेघनाद ने रावण को भगवान राम के खिलाफ लड़ने से रोकने का प्रयास किया था, वह भगवान राम को विष्णु का अवतार मानते थे, लेकिन जब रावण ने उनकी सलाह नहीं मानी तो उन्हें युद्ध में शामिल होना पड़ा. बता दें कि यह विचार सबसे पहले ऐशबाग दशहरा और रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल और सचिव आदित्य द्विवेदी ने 5 साल पहले रखा था, लेकिन अन्य सदस्यों ने इसे इस आधार पर खारिज कर दिया कि तीनों का पुतला जलाना 300 साल पुरानी परंपरा का हिस्सा है.

300 साल पुरानी परंपरा खत्म करने की वजह

आदित्य द्विवेदी ने कहा कि रामचरितमानस और रामायण के अन्य संस्करणों से पता चलता है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने उनसे कहा था कि भगवान राम, विष्णु के अवतार हैं और उन्हें उनके खिलाफ युद्ध नहीं करना चाहिए. दूसरी तरफ रावण के भाई कुंभकरण ने उन्हें बताया कि सीता, जिनका लंका के राजा ने अपहरण कर लिया था, वह कोई और नहीं, बल्कि जगदंबा है और अगर वह उन्हें मुक्त नहीं करता है, तो वह अपने जीवन में सब कुछ खो सकता है. हालांकि, रावण ने उनके सुझावों को नजरअंदाज कर दिया और उन्हें लड़ने का आदेश दिया. इसलिए, हमने मेघनाद और कुंभकरण के पुतले नहीं जलाने का फैसला किया है.

रामलीला समिति के अध्यक्ष ने कही ये बात

रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल ने बताया कि काफी बहस और चर्चा के बाद हम इस साल सभी सदस्यों को यह समझाने में सफल रहे कि इस परंपरा को खत्म करने की जरूरत है.

गोस्वामी तुलसीदास ने ऐशबाग में शुरू किया था दशहरा समारोह

माना जाता है कि रामलीला और दशहरा समारोह 16वीं शताब्दी में ऋषि-कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लखनऊ के ऐशबाग में शुरू किया गया था. रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने की परंपरा करीब तीन सदी पहले शुरू की गई थी. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक संतों ने इस परंपरा को निभाया था.

गौरतलब है कि लखनऊ के नवाब भी रामलीला देखने जाया करते थे. विद्रोह के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समारोह को आगे बढ़ाया गया.

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