दुर्गा पूजा में रेड लाईड एरिया की मिट्टी क्यों कोलकाता में दुर्गा पूजा हो और उसमें रेड लाइट एरिया सोनागाछी की मिट्टी न हो, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। शास्त्रों के नियमों का पालन करते हुए देवी दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है। इसमें वेश्यालय की मिट्टी का भी अंश होता है। कुछ साल पहले इसे लेकर कोलकाता शहर में काफी शोर-गुल मचा था। यौन कर्मियों के संगठन ‘दूर्बार’ की ओर से कहा गया कि वे लोग दुर्गा पूजा के लिए मिट्टी नहीं देंगी। उनकी नाराजगी केंद्र सरकार के मानव तस्करी विरोधी नए कानून को लेकर थी। उनका मानना था कि इस कानून से आम यौन कर्मियों का जीना दुश्वार हो जाएगा।
दरअसल तमाम आधुनिकता के बावजूद यौन कर्मियों को हमने सामाजिक जीवन से लगभग अछूत बना रखा है। उनके दुख सुनने का न तो हमारे पास समय है और न ही इच्छा। अपनी बात हमारे-आपके जैसे शरीफ लोगों तक पहुंचाने का कोई साधन भी उनके पास नहीं है। ऐसी हालत में मिट्टी न देने का उनका फैसला केवल अपनी तकलीफ को हम तक पहुंचाने की उनकी एक कोशिश भर थी।
आज जिस आसानी से हम यह जानते हैं कि दुर्गा पूजा में वेश्यालय की मिट्टी की ज़रूरत होती है, दो सदी पहले तक ऐसा नहीं था। तब यह खबर समाज के कुछ खास हिस्सों के ही पास थी। सबकुछ काफी गुपचुप रखा जाता था। दुर्गा पूजा के सार्वजनिक आयोजनों की शुरुआत करीब 200 साल पहले हुई थी। उसके पहले तक यह जमींदारों और अभिजात परिवारों तक ही सीमित थी।
आम लोग जमींदारों की हवेली में जाकर मां दुर्गा के दर्शन करते थे, प्रसाद लेते थे और अगर मौका दिया जाता तो वहां होने वाले उत्सवों का आनंद लेते थे। लेकिन उत्सव के आयोजन से जुड़ी बहुत सी बातें आयोजक परिवार तक ही सीमित रहती थीं। ऐसी ही एक गोपनीय बात थी मूर्ति के लिए वेश्यालय की मिट्टी लाए जाने की। आखिर यह सच पहली बार कैसे सामने आया?
साल 1840 की बात है। बेहाला इलाके के कुछ युवकों ने तय किया कि वे सार्वजनिक तौर पर दुर्गा पूजा करेंगे। मां की आराधना सिर्फ धनी परिवारों तक सीमित क्यों रहे? लेकिन सिर्फ चाहने से तो पूजा का आयोजन संभव था नहीं। इसके लिए तरह-तरह के शास्त्रीय विधि-विधान की जानकारी के साथ बड़ी रकम की भी जरूरत थी। चंदा जुटाने के लिए इन युवकों ने जो रास्ता अपनाया, उसे लेकर हंगामा भी खड़ा हुआ।
उन दिनों संपन्न परिवारों की महिलाएं पालकी में आया-जाया करती थीं। उस समय प्रकाशित होने वाले अखबार समाचार दर्पण के मुताबिक, इन युवकों का दल महिलाओं की पालकी देखते ही उन्हें घेर लेता था और ‘चढ़ावे’ की मांग करता था। पर्दे में रहनेवाली कुलीन महिलाएं कोई जेवर-गहना देकर पीछा छुड़ातीं। लेकिन अखबारों में इस बारे में खबरें छपने पर मामले ने तूल पकड़ लिया। मैजिस्ट्रेट पेटोन साहब तक यह खबर पहुंची। उन्होंने पुलिस को कार्रवाई का निर्देश दिया, लेकिन युवक उनके हत्थे नहीं चढ़े।
काफी दिमाग लड़ाने के बाद पेटोन साहब ने एक रास्ता निकाला। रोज की तरह उस दिन भी कहार एक पालकी लेकर बेहाला गांव से गुजर रहे थे। तभी युवकों का वह दल पहुंचा और उसने पालकी को रोक लिया। पालकी के कहारों ने युवकों को इशारा भी किया, लेकिन कौन किसकी सुनता है। पालकी रुकते ही भीतर से पेटोन साहब कूद कर निकले। युवक भागने लगे। कुछ भाग निकले, लेकिन कुछ को दबोच लिया गया। हालांकि इसके बाद भी उन लोगों ने उस साल सार्वजनिक दुर्गा पूजा की।
पूजा से आम जनता को दुर्गा पूजा के ऐसे कई नियमों का पहली बार पता चला, जो अब तक उनके लिए अनजाने थे। उस साल बेहाला में ही नहीं, कई और जगहों पर भी आम लोगों ने सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन किया। इसके लिए तमाम सामग्री जुटाने के दौरान उन्हें यह भी पता चला कि मूर्ति गढ़ने के लिए वेश्यालय के आंगन की मिट्टी की जरूरत होती है। एक बार तो लोग हैरान रह गए, धार्मिक नियम तो नियम हैं।