देश में कहीं भी साइबर क्राइम की घटना हो, सबसे पहले जुबान पर नाम आता है- जामताड़ा। झारखंड का यह ऐसा शहर है जो बड़े बड़े साइबर अपराध को अंजाम दे चुका है। यहां के साइबर अपराधी न सिर्फ अपराध को अंजाम देते हैं, बल्कि यहां साइबर क्राइम की पाठशाला में कई अपराधी प्रशिक्षण भी प्राप्त करते हैं। लेकिन इसी जामताड़ा प्रखंड क्षेत्र की हम एक नई कहानी सुनाने जा रहे हैं। इसी जामताड़ा शहर से करीब चार किलोमीटर दूर एक गांव है- नाला। इसे झारखंड की काजू नगरी कहा जाता है। यहां जो काजू का बागान है, झारखंड में ऐसा कहीं भी नहीं है। यहां काजू आपको आलू के भाव मिल जाएगा। यानी महज 20 से 30 रुपये प्रति किलो।
जामताड़ा के नाला गांव में करीब 50 एकड़ क्षेत्रफल में काजू का बगान है। यहां की जलवायु और मिट्टी काजू की खेती के लिए अनुकूल है। वर्ष 1990 के आसपास की बात है। वन विभाग को पता चला कि यहां की मिट्टी काजू की उपज के लिए बेहतर है, उसने बड़े पैमाने पर काजू का पौधा लगा दिया। देखते ही देखते पौधे पेड़ बन गए। हजारों की संख्या में काजू की पेड़ नजर आने लगे। पहली बार काजू का फलन हुआ तो गांव वाले देखकर गदगद हो उठे। बगान से काजू चुनकर घर लाते और एकत्र कर सड़क किनारे औने-पौने दाम में बेच देते। चूंकि इलाके में कोई प्रोसेसिंग प्लांट नहीं था, इसलिए फलों से काजू निकालना उनके लिए संभव भी नहीं था।
ग्रामीण बताते हैं कि पड़ोस के बंगाल के व्यापारियों को इसकी सूचना मिली। उन्होंने इन ग्रामीणों से काजू का फल खरीदना शुरू कर दिया। व्यापारी इसे थोक भाव में खरीदकर ले जाने लगे। बंगाल में ही प्रोसेसिंग कर इसे ज्यादा कीमत पर बेचने लगे। देखते ही देखते यह कारोबार विस्तार पा गया। आज भी इस इलाके से बंगाल के कारोबारी काजू खरीदकर ले जाते हैं। व्यापारी तो प्रोसेसिंग के बाद अधिक मुनाफा कमा लेते हैं, लेकिन ग्रामीणों को इसकी कोई उचित कीमत नहीं मिल पाती है।
ग्रामीणों की मानें तो अगर झारखंड सरकार इस इलाके में काजू प्रोसेसिंग प्लांट लगा दे तो काजू की खेती घर-घर होने लगेगी। लोगों को रोजगार का साधन विकिसत हो जाएगा। यहां गांव में किसी के पास ऐसी स्थिति नहीं है कि वह खुद के खर्चे से काजू का प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित कर सके। स्थानीय ग्रामीण कई बार प्रशासन से इसके लिए पहल करने की मांग कर चुके हैं। ग्रामीण बताते हैं कि सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के तहत यह पौधे वन विभाग की ओर से लगाए गए थे। बगान विकसित होने के बाद अब इस छोटे से गांव का नाम ही काजू नगरी हो गया है। लोग इसे काजू नगरी के नाम से ही पुकारते हैं।
झारखंड के इस जिले में कोई कल-कारखाना नहीं है। यहां कुटिर उद्योग भी नहीं है। बारिश के मौसम में यहां लोग धान की खेती करते हैं। इसके बाद लोग दूसरे शहरों में पलायन कर जाते हैं। बाहर के राज्यों में मजदूरी करना और पेट पालना यही इनकी जिंदगी बन गई है। घर की महिलाए और बच्चे सीजन में काजू चुनकर बेचते हैं। कई लोग मनरेगा योजना के तहत मजदूरी करते हैं, जिससे घर की दाल रोटी चलती है। ग्रामीणों का कहना है कि यदि इलाके में काजू उत्पादन को ही कुटिर उद्योग का रूप दे दिया जाए तो लोगों की किस्मत बदल सकती है।