शास्त्रों के विधान के अनुसार ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या के तीन दिन पूर्व त्रयोदशी से वट सावित्री का व्रत रखा जाता है लेकिन प्रायः सुहागिन महिलाएं अमावस्या को ही इस व्रत को श्रद्धा के साथ करती हैं. इस वर्ष यह व्रत 30 मई सोमवार को किया जाएगा. इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है. सत्यवान-सावित्री की कथा एक नारी की पवित्रता और दृढ़ता की कथा है. इस दिन सुहागिन स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु, स्वास्थ्य और ऐश्वर्य की कामना के लिए वट सावित्री का व्रत रखती हैं. मान्यता है कि आज के दिन व्रत करने से जन्म कुंडली के वैधव्य (विधवा) योग का निवारण होता है. यह व्रत पति के प्राणों पर आए संकट को टालता है.
वट को देव वृक्ष मानते हैं, यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता है. वर्षों तक जीने वाले वट वृक्ष की रक्षा देवों के जरिए की जाती है. वट वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा, तने में भगवान शिव का वास होता है. सावित्री ने भी वट वृक्ष की पूजा अपने पति की दीर्घायु के लिए की थी. ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन वट वृक्ष पर जल चढ़ाकर जल से प्रक्षालित वट के तने पर रोली का टीका लगाएं. चना, गुड़, घी इत्यादि चढ़ाएं. वृक्ष के नीचे तने से दूर घी का दीपक प्रज्ज्वलित करें. वट के पेड़ की पत्तियों की माला पहनकर कथा सुनें. वट वृक्ष की परिक्रमा करते हुए 108 बार या यथाशक्ति वट वृक्ष के मूल को हल्दी रंग के सूत से लपेटें. फिर माता सावित्री का ध्यान करते हुए अर्घ्य प्रदान करें.
इस दौरान यह मंत्र जरूर पढ़ें - 'अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते, पुत्रान पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणाध्यं नमोस्तुते।।' दरअसल, ज्योतिषीय दृष्टि से यह व्रत अधिक महत्वपूर्ण है. जिसके प्रभाव से व्यक्ति की कुंडली के वैधव्य योग का अंत हो जाता है. वट सावित्री का व्रत वैवाहिक व दांपत्य जीवन को सुखी बनाने तथा अल्पायु योग को दीर्घायु में बदलने का सुगम साधन है. इसलिए सुहागिन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु व अखंड सौभाग्य के लिए वट वृक्ष की पूजा कर सामर्थ्य अनुसार दान करती हैं.
वृक्ष हमें जीवन देते हैं, उनमें हमारे प्राण बसते हैं, वट सावित्री अमावस्या का भी यही महत्व है कि यदि हम खुद का अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें वृक्षों को बचाने के लिए आगे आना होगा. शतपथ ब्राह्मण में वृक्ष को शिव और यजुर्वेद में शिव को वृक्ष का स्वामी बताया गया है. वृक्ष स्वयं कार्बन-डाइ-ऑक्साइड रुपी विष पीकर हमें ऑक्सीजन रुपी अमृत प्रदान करते हैं. यहीं वृक्षों का शिवत्व है.
वृक्षों के काटे जाने से पर्यावरण-असंतुलन के कारण सृष्टि का विनाश अवश्यंभावी है, इसे हम शिव का रौद्र रूप(रुद्रत्व) कह सकते हैं. संभवतः अधिक मात्रा में कार्बन-डाई-ऑक्साइड को खींचकर अधिक ऑक्सीजन छोड़ने का कारण बरगद की पूजा विशेष महत्व रखती है. वटवृक्ष के नीचे ही मृत सत्यवान को नव जीवन प्राप्त होने का वृतांत भी इस धारणा को बल प्रदान करता है. कुछ धर्मग्रंथ कहते हैं कि वट वृक्ष के मूल (जड़) में ब्रह्मा, मध्य(तने) में विष्णु और अग्रभाग में शिव का वास होता है, इसलिए इसे देववृक्ष कहा गया है.
पौराणिक कथा है कि एक बार मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान से उनकी माया का दर्शन कराने का अनुरोध किया, तब भगवान ने प्रलय का दृश्य दिखलाकर वट वृक्ष के पत्ते पर ही अपने पैर के अंगूठे को चूसते हुए बाल स्वरूप में दर्शन दिए थे. यह दृष्टांत वटवृक्ष का आध्यात्मिक महत्व दर्शाता है. इसी तरह वनवास के समय भगवान श्री राम ने कुंभज मुनि के परामर्श से माता जानकी एवं भ्राता लक्ष्मण सहित पंचवटी (पांच वटों से युक्त स्थान) में निवास कर वटवृक्ष की गरिमा को और अधिक बढ़ा दिया.