शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम।

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।

इस प्रार्थना में भगवान विष्णु को सर्प पर शयन करते हुए प्रदर्शित किया गया है, वहीं पंचतंत्र के श्लोक 'उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये, पय:पानं भुजंगानाम् केवल विषवर्धनम्' को देखा जाए तो अज्ञान ही सर्प है, क्योंकि श्लोक में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मूर्खों को दिया गया उपदेश उनके क्रोध को उसी तरह बढ़ाता है जैसे कि सांप को पिलाया गया दूध विष में बढ़ोत्तरी करता है।

ऐसी स्थिति में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नागपंचमी पर्व पर नागों की पूजा की धार्मिक व्यवस्था पर चिंतन से प्रथम दृष्टया स्पष्ट हो जाता है कि योग के ईश्वर भगवान विष्णु क्यों सर्पों पर शयन करते हैं? भगवान विष्णु पालनकर्ता हैं। सुयोग्य पालनकर्ता बनने के लिए मनुष्य को ज्ञान की आवश्यकता होती है, जबकि अज्ञान जीवन को विषाक्त बना देता है। पंचतंत्र के श्लोक में मूर्ख की तुलना सर्पों से की गई है। मनुष्य चूंकि परमानंद का अंश है और वह जब मूर्खता के जंजाल में फंसकर नकारात्मक कार्य करता है, तब वह देवत्व की राह से भटक कर दैत्य की राह पर चल पड़ता है। सतयुग में समुद्रमंथन के समय असुर रहे हों, त्रेता में रावण रहा हो, द्वापर में कंस और कौरव रहे हों, सब नकारात्मकता के सर्प से डंसे हुए थे। यहां तक आदि कवि वाल्मीकि भी जब रत्नाकर डाकू थे और उनका जीवन विषमय था, तब महर्षि नारद ने अपनी वीणा से उनके हृदय में 'राम' की गूंज पैदा कर अमृत चखा दिया।

नागपंचमी पर्व पर नागों की पूजा भी मनुष्य के नाभिकमल में सुषुप्त नागों को योग के जरिए मणियुक्त बनाने का संदेश देता है। नाभि में स्थित मणिपुर चक्र को साढ़े तीन घेरे में लपेटे सर्प को जब साधना का बीन के द्वारा सहस्रार की ओर ले जाया जाएगा, तब वही सर्प भगवान विष्णु का 'शान्ताकारं भुजग शयनम्' रूप का हो जाता है। देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी के मध्य चातुर्मास में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस अवधि में भगवान विष्णु जहरीले सर्प को विषहीन बना रहे हंै। इन्हीं सर्पों को द्वापरयुग में अभिमन्यु पुत्र परीक्षित भी यज्ञ-अनुष्ठान के जरिए विषहीन बनाना चाह रहे थे, लेकिन शमीक ऋषि के पुत्र ऋंगी के शाप की वजह से वे ऐसा नहीं कर सके। तक्षक सर्प एक फल में प्रवेश कर उनके यज्ञ-स्थल तक पहुंच गया था। यह फल कर्मफल का सूचक है। परीक्षित ने भी क्रोध और राजा होने के अभिमान में ध्यानावस्था में लीन शमीक ऋषि के गले में सर्प डाल दिया था, जिसका परिणाम उनके लिए अंतत: घातक हुआ। उनके राज्य में अन्याय का सूचक कलियुग पहुंच ही गया। परीक्षित ने पांच स्थानों सोना, जुआ, मद्य, स्त्री और हिंसा में रहने की उसे छूट दी। परीक्षित के लिए यही पंच-सर्प हो गए।

भक्तिकाल में भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास के बारे में किंवदंती है कि वे अपनी पत्नी रत्नावली के मायके जब पहुंचे और सर्प के सहारे घर में गए, तब रत्नावली ने उन्हें श्रीराम से प्रेम करने को प्रेरित किया था। यह सूचक है कि नाभिचक्र में सुषुप्त कुंडलिनी को सर्पाकार मेरुदंड के सहारे जब वे सहस्रार पर ले गए, तब उनमें रामत्व जाग्रत हो गया और रत्नों के दीप की अवली (पंक्ति) प्रकाशित हो गई, वरना सर्प के सहारे घर में प्रवेश संभव नहीं। यह प्रतीकात्मक कथा है।

धर्मग्रंथों में कश्यप ऋषि की दो पत्नी कद्रू और विनीता के आपसी द्वेष की कथा में सूर्य के रथ के घोड़े की पूंछ के काले रंग की भी कथा है। ज्ञान के सूर्य के चमकते घोड़े की पूंछ को अपने अज्ञानी हजारों पुत्रों की दुरभिसंधि से सर्पों की माता कद्रू ने काले रंग का बताकर विनीता को दासी बना लिया, लेकिन इसका अंत बुरा हुआ। अंतत: ब्रह्मा की शरण में सर्पों को आना पड़ा। श्रावण शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को ब्रह्मा ने उन्हें शाप से मुक्त करने का वरदान दिया। इस संबंध में श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध के नौवें से 12वें अध्याय में इस कथा का उल्लेख है, जबकि अग्निपुराण के 294वें अध्याय में नागों के प्रकार, भयावहता तथा उपचार का भी उल्लेख है।

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