सुप्रीम कोर्ट ने देश में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण को खत्म करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई से इंकार किया. कोर्ट ने याचिका को पब्लिसिटी के लिए दायर याचिका बताते हुए जुर्माना लगाने की चेतावनी दी. याचिका एलएलएम की छात्रा शिवानी पंवार की ओर से दायर की गई थी. कोर्ट को रुख को देखते हुए याचिकाकर्ता के वकील ने अर्जी वापस ले ली.

'अगर याचिका वापस नहीं लेंगे तो जुर्माना लगेगा'

सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की बेंच के सामने आई. बेंच ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि देश में आरक्षण व्यवस्था खत्म हो, यह आपकी याचिका है. आपका कहना है कि आरक्षण समानता के खिलाफ है और जाति व्यवस्था को बढ़ावा देता है. एलएलएम की छात्रा पब्लिसिटी के लिए ऐसी याचिका दायर कर रही है. ये क़ानूनी प्रकिया का दुरूपयोग है. अगर आप याचिका वापस नहीं लेते तो हम जुर्माना लगाएंगे. इसके बाद याचिकाकर्ता के वकील ने अर्जी वापस ले ली.

संविधान पीठ के जजों ने आरक्षण पर सवाल खड़े किए थे

वैसे ये जानना दिलचस्प है कि पिछले दिनों EWS आरक्षण को बरकरार रखने वाले फैसले में  संविधान पीठ के दो जजो ने आजादी के 70 सालों बाद भी आरक्षण की ज़रूरत रहने पर सवाल खड़े किए थे. जस्टिस पारदीवाला ने फैसले में लिखा था कि बाबा साहेब अंबेडकर का मकसद सिर्फ दस साल तक आरक्षण को लागू कर सामाजिक सौहार्द लाना था. हालांकि पिछले 70 सालों से आरक्षण अभी भी जारी है. आरक्षण को अनिश्चित वक़्त तक नहीं जारी रहना चाहिए ताकि ये निहित स्वार्थों की पूर्ति का जरिया न बन सके. यही नहीं जस्टिस पारदीवाला का ये भी  मानना था कि पिछड़े तबके के जो लोग शिक्षा और रोजगार का एक जरूरी ओहदा हासिल कर चुके हैं, उन्हें आरक्षण के लाभ से हटा देना चाहिए. ताकि उनको आरक्षण का फायदा मिल सके, जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है.

जस्टिस बेला त्रिवेदी ने भी समीक्षा की जरूरत बताई थी

EWS आरक्षण वाले मामले में ही संविधान पीठ की एक अन्य सदस्य जस्टिस बेला त्रिवेदी ने अपने फैसले  में कहा था कि  संविधान के निर्माताओं का भी मानना था कि आरक्षण की समय सीमा होनी चाहिए पर आजादी के सत्तर साल बाद भी ये जारी है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आरक्षण इसलिए लाया गया था ताकि SC /ST और ओबीसी समुदाय के लोगों के साथ हुई ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी को दुरुस्त किया जा सके ,उन्हें अगड़ी जातियों के साथ आगे लाया जा सके .लेकिन अब आजादी के सत्तर सालों बाद हमे आरक्षण व्यवस्था की समाज के व्यापक हितों को देखते हुए फिर से समीक्षा की ज़रूरत है.

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